देश के बाकी हिस्सों में नवरात्र मनाने का ढंग उत्तर भारत से बिलकुल अलग है
कुछ दिन पहले ही कोलकाता के ब्लॉगर सप्तऋषि चक्रवर्ति को ट्रोल किया गया. वो 26 सितंबर से शुरू हो रही दुर्गा पूजा के लिए खास एग रोल की रेसिपी बता रहे थे. लोगों ने कमेंट किए कि कैसे कोई हिंदू दुर्गा पूजा के समय अंडा और प्याज खा सकता है. इसके बाद जवाबी कमेंट हुए. एक समय के बाद दोनों तरफ से स्तरहीन बहस हुई.
उत्तर भारत में हवन-पूजन और सात्विक तरीके से नवरात्र मनाने वालों का तर्क था कि देश की मुख्य धारा में व्रत और पूजापाठ करके ही नवारत्र मनाने की परंपरा है, यही सही है. दूसरी ओर बंगाल के पक्षधरों का कहना था कि बंगाल में देवी दुर्गा कोई ‘बेचारी गाय’ नहीं है. इसलिए तरह-तरह के मांस और मछली पकाना देवी के स्वागत का सही तरीका है.
मुख्य धारा और गाय जैसे शब्दों से ये समझ आता है कि ये बहस धर्म से राजनीति की कक्षा में चली गई. इस पर बाद में बात करेंगे पहले समझ लेते हैं कि नवरात्रों में नॉनवेज के पीछे का चक्कर क्या है.
उत्तर भारत से अलग है बाकी देश की आस्था
उत्तर भारत में नवरात्र आस्था का प्रतीक है. लोग देवी की आराधना करते हैं. देश के इस हिस्से में नवरात्र तप और संयम के साथ मनाया जाता है. वहीं गुजरात में ये देवी के युद्ध जीतने का उत्सव है जिसको वहां के लोग डांडिया और गरबा जैसे नृत्यों के साथ मनाते हैं.
बंगाल में दुर्गा पूजा बेटी उमा के मायके वापस आने का मौका है. जिसकी खुशी में लोग 4 दिन बेहतरीन किस्म का खाना खाते हैं, नए कपड़े पहनते हैं. और अपनी बेटी, जिसे वो मां भी मानते हैं के आने का जश्न मनाते हैं.
बेटी को मां मानने का ये ढंग ऐसा है कि बंगाल में कई पारंपरिक परिवारों में पुरुष बच्चियों को मां कह कर ही बुलाते हैं. इसके साथ ही वहां की लोक कथाओं में देवी के महिषासुर वध से पहले मदिरापान का जिक्र आता है, इस बहाने से इन दिनों में रम पीने वालों की कमी नहीं दिखती.
इसी तरह से हिमाचल और उत्तराखंड में मान्यता है कि देवी को शराब और मांस बहुत प्रिय है, इसलिए देवी की पूजा के लिए मांस का भोग लगता है और प्रसाद बांटा जाता है. यहां तक कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के क्षेत्र गोरखपुर की तर्कुला देवी के यहां भी ‘बिना प्याज-लहसुन का मांस’ प्रसाद में बनाने की परंपरा है. बलि प्रथा पर अलग से चर्चा हो सकती है मगर ये बात यहां सिर्फ ये बताने के लिखी गई है कि भारत आपकी सोच से कही ज्यादा विविध है.
कुछ दिन पहले केरल में ओणम को वामन महोत्सव की तरह से मनाने के होर्डिंग लगे. वामन को भगवान विष्णु का अवतार माना जाता है, उन्होंने केरल के असुर राजा बली को पाताल लोक भेज दिया था. उत्तर भारतीय सिद्धांत से विष्णु के अवतार की पूजा होनी चाहिए और असुर को मारा जाना चाहिए. मगर केरल पारंपरिक रूप से राजा बलि को अपना मानता है और उनके घर आने की खुशी में ओणम मनाता है.
फिर गलत क्या है
गलती समाज की परंपरा में धर्म, बाजार और राजनीति मिलाने की है. उत्तर भारत पिछले एक हज़ार साल से सत्ता का केंद्र बना हुआ है. कुछ दशकों के लिए कोलकाता का भारत की राजधानी बनना छोड़ दें तो दिल्ली लगातार देश की राजधानी के तौर पर बसती-उजड़ती रही है. ऐसे में यहां की परंपराओं को ही कई लोग मुख्य धारा मान लेते हैं.
शिवसेना गुरुग्राम में केएफसी जैसी दुकानें बंद करवाने की गुंडागर्दी करती है. सत्ताधारी दल से जुड़े कई लोग छोटे मोटे स्तर पर या सोशल मीडिया में अपने से अलग लोगों को धर्म विरोधी कहकर ट्रोल कर लेते हैं.
बाजार के खिलाड़ी नवरात्र में कुटू के आंटे के पित्जा और फलाहारी बर्गर बेच लेते हैं. जबकि यही कंपनी लगभग उसी समय पर कोलकाता में दुर्गापूजा स्पेशल फिश फ्राई और केरल में ओणम अप्पम पित्जा भी बेच रही होती है. अंध भक्ति का चश्मा पहने लोग खुश होते हैं कि हमारे धर्म का सम्मान करते हुए विदेशी भी देसी होते जा रहे हैं.
कुल मिलाकर एक ही बात है. देश विविधताओं से बना है और इसका अलग-अलग होना ही इसकी ताकत है. इन सब को एक परंपरा, एक परिभाषा या एक मुख्य धारा में बांधना इस देश को कमजोर करने का सबसे बड़ा प्रयास है. इससे बचने की जरूरत है. इसके बाद भी अगर कोई शक बाकी रहा हो तो सोचिए, “अगर 2000 साल तक भारत की राजधानी शिलॉन्ग या कोहिमा रही होती तो आपका सबसे बड़ा त्योहार क्या होता? प्रमुख भोजन क्या होता? गाय उस तरह से पवित्र मानी जाती जैसे आज मानी जाती है?”